घर में छुपने को ना थी जगह तो लाँघ के चौखट हम चल दिए थे खुद जले हम, ख़ाक किया सब हमको लगा कि हम तो दीए थे चल घर वापस चलें, जहाँ बंज़र है ज़मीं ना खिड़की है, ना दरवाज़े, और छत भी है नहीं मेरी रखी है एक याद उस खंडहर में भी आज चुभती है कल की बात पैने ख़ंजर सी ही ♪ खुश होती है ज़मीं मेरे आ जाने से और देती है एक लाश और अपने ख़ज़ाने से बीते, ऐसे मेरे बीते जाने कितने साल हैं घर आए तो देखा कि कुएँ का पानी लाल है आती है खुशबू घर की बुझी राख से गिरते हैं कभी क्या मीठे फ़ल गिरी हुई शाख़ से? चल घर वापस चलें, जहाँ बंज़र है ज़मीं ना खिड़की है, ना दरवाज़े, और छत भी है नहीं मेरी रखी है एक याद उस खंडहर में भी आज चुभती है कल की बात पैने ख़ंजर सी ही