अरे पड़ गया जोग ज़लील है भोग नए नए लोग देखे लग गया रोग डर गए वह घर गए वह जहाँ भी चले गए मर गए वह छीनी है हसी चुप रह गयी ज़िंदा हूँ मगर सांसें बंद हो गयी कैसा है ये मोह दिख गया जो उसी के ही पीछे अब पड़ गया वह आ आ अरे लग गया रोग शाम सवेरे दिल में अंधेरा रहता है काटती हूँ मैं खुदको घाव गहरा लगता है देखती हूँ शीशे में आसूं बह जाती हूँ मोटी या फिर काली सबको मैं लगती हूँ ली है मेरी जान हूँ मैं परेशान दिल भी है टुटा अब टूटे अरमान रोया आसमान भीगा है जहान मिट्टी भी है भूरी भूरा मेरा है नकाब कैसा है ये रोग लगता है रोज़ जाता है नहीं कहीं है ये घनघोर चलती हवा उड़ता बयान पूछती हूँ अब भी क्या नहीं मैं इंसान आ आ क्या नहीं मैं इंसान शाम सवेरे दिल में अंधेरा रहता है काटती हूँ मैं खुदको घाव गहरा लगता है देखती हूँ शीशे में आसूं बह जाती हूँ मोटी या फिर काली सबको मैं लगती हूँ जैसी भी हूँ काफी मैं कब हो पाउंगी खुद को ही मैं माफ़ी अब कब दे पाउंगी डूब मरूंगी लेकिन मैं सब सह जाउंगी खुद से ही मैं नफरत अब ना कर पाउंगी